सूर्य पुत्र कर्ण के जन्म की दिव्यता
महऋषि वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत वन पर्व के ३०७ वे अध्याय के अनुसार सूर्य पुत्र कर्ण का जन्म माघ प्रतिपदा से ठीक दसवे माह में श्रृष्टि के रचयिता भगवान् ब्रह्मा के पुत्र महऋषि कश्यप और देवी अदिति के पुत्र आदित्य (देव) सूर्य और मनुष्य रूप में स्त्री देवी कुंती के समागम से दैवीय चमत्कारिक रूप से देवी कुंती का कन्या भाव भंग किए बिना हुआ था यह समागम पूर्णतः दोष रहित एवं मनुष्यों की समझ से परे दैवीय हस्तक्षेप पर आधारित था किंतु प्राचीन काल से ही कर्णवंशी किसी महत्व विशेष के कारण सामुदायिक परंपरा के रूप में गंगा दशहरा को कर्ण जयंती मनाते आ रहे है और यही परंपरा शुरुआत से वर्तमान तक चली आ रही है सूर्य पुत्र कर्ण जन्म उस काल में हुआ था जब एक मंत्र मात्र के उच्चारण से सहस्त्रों मील दूर अंतरिक्ष से वर्तमान युग में स्थिर कहे जाने वाला खगोलीय पिण्ड सूर्य क्षण भर में पृथ्वी आ पहुंचते थे इसलिए सूर्य पुत्र कर्ण के जन्म की कल्पना कर उनके जन्म पर उंगली उठाने का सामर्थ्य वर्तमान युग के मनुष्यों में नहीं है इसके अतिरिक्त द्वापुर युग से पहले भी सनातन धर्म में त्रेता युग में भी श्रृंगी ऋषि द्वारा किए गए यज्ञकुंड से प्राप्त खीर खाने से एवं हल जोतते समय प्राप्त घड़े से भी पुत्र/पुत्री प्राप्ति का वर्णन मिलता है इसीलिए हमारा सनातन अनंत है अर्थात जिसकी कोई थाह नहीं







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