कर्णवंशी क्षत्रिय जाति की उत्पत्ति ( कर्ण राजपूत समाज का इतिहास )
कर्ण राजपूत वंश कि उत्पत्ति:-
सूर्य पुत्र कर्ण पांडवो के ज्येष्ठ भ्राता और कुरु युवराज दुर्योधन के मित्र थे इसलिए कुरु युवराज दुर्योधन ने कर्ण को अंग देश का राजा घोषित करने का निर्णय लिया उस समय अंग देश के राजा विश्वजीत की कोई संतान न होने के कारण अंग देश हस्तिनापुर के शरंक्षण में था कुरुराजकुमार कि घोषणा के बाद कुरुपती ने सूर्य पुत्र कर्ण को महाराज विश्वजीत का उत्तराधिकारी बनाकर अंग देश का सम्राट नियुक्त कर दिया और इस प्रकार सूर्य पुत्र कर्ण अंग राजवंश के उत्तराधिकारी बन गए, अंग राजवंश शुरू से ही चन्द्रवंशी क्षत्रियों का राजवंश था अंग देश के शंश्थापक महाराज अंग थे जो कि चंद्रवंशी राजा महामना के दुसरे पुत्र तितुक्षु के वंशज पुत्र राजा वली के पुत्र थे राजा वली को ऋषि दीर्घतमा के आशीर्वाद से 5 पुत्र प्राप्त हुए अंग , वंग, कलिंग ,सुहू ,पुण्य जो बालेय कहलाये
राजा अंग ने अपने नाम से अंग देश बसाया और इनके वंशज क्रमशःददिवाहन ,द्विरथ , धर्मरथ ,लोमपाद (दशरथ) और विश्वजीत हुए , अंग देश को ऋषि श्राप के कारण लोमपाद और उनके भ्राता विश्वजीत के कोई संतान नही हुई और उसी समय अंगदेश कि दो शाखाओं का निर्माण हुआ पहली शाखा लोमपाद बाली हुई जिन्होंने श्राप मुक्ति के लिए अवध नरेश दशरथ से शांता नामक पुत्री को गोद लिया और उसका विवाह विभांडक ऋषि के पुत्र श्रंगी ऋषि से करा दिया और उनके वंशज चतुरंग ,विकर्ण ,शौपुत्र-शतकर्णी, हुए जिनके वंशज सेंगर राजपूत हुए तथा दूसरी शाखा विश्वजीत के वंश को सूर्य पुत्र कर्ण ने आगे बढाया और अंग देश पर कर्ण के वंशजो ने कई सताव्दियों तक शाशन किया जिनमे क्रमशः व्र्श्यकेतु,व्रषसेन ,प्रथुसेन प्रमुख थे राजा प्रथुसेंन के बाद कर्ण वंश लडखडा अवश्य गया किंतु अंग देश का मगध में विलय हो जाने के उपरांत भी कई पीढ़ियों तक कर्ण वंशज अंग देश के प्रमुख पदों पर रहे और आंतरिक विद्रोह को झेलते रहे तत्पश्चात विदेशी आक्रांताओं के समय भारत के हिंदू राजाओं पर होने वाले अनैतिक आक्रमणों ने हिंदू राजाओं को अपनें हिंदू वादी अस्तित्व को बचाए रखने के लिए राज्य सुख छोड़ने पर विवश कर दिया और कई स्वाभिमानी महाराणा प्रताप जैसे राजा अपनी मान मर्यादा और स्वाभिमान को बचाए रखने के लिए जंगलों में कबीला बना कर रहे दुर्दांत विदेशी आक्रांताओं के द्वारा कई हिंदू राजाओं के इतिहासिक अस्तित्व को मिटा दिया गया और कई मंदिरों को तोड़ कर उन पर मस्जिदों का निमार्ण करा दिया गया और हिंदू संस्कृति के कई इतिहासिक प्रमाण मिटा दिए गए और भारत के इतिहास के मन्दिर नालिंदा विश्व विद्यालय को जला दिया गया ताकि हिंदुस्तान के हिंदु राजाओं की हिंदु संस्कृति के इतिहास को हमेशा के लिया मिटा दिया जाए और हिंदु राजाओं के इतिहास को भ्रमित कर दिया गया स्थानीय इतिहासकारों के अनुसार अंग देश के कर्ण वंशी अन्तिम शासक / सामंत महाराज शिव कर्ण अपने लोगों के साथ राज्य सुख त्याग कर अपने अस्त्र शस्त्र धनुष वाण धारण कर जंगलों में चले गए और कबीले में रहने लगे और उस कर्ण वंशी कबीले के सरदार बनकर उसका नृतत्व करने लगे कवीलों को स्थानीय भाषा में डेरा कहा जाता था चूंकि डेरा करणों का था इसलिए उन डेरो को कर्णडेरा कहा जाता था जो लोक भाषा में अपभ्रंश हो कर कंडेरा हो गया तथा धीरे धीरे डेरों की तादात में विस्तार होने लगा और डेरा से कई डेरे हो गए चूंकि यह सभी डेरे करणों के थे इसलिए इन्हें कर्णडेरे कहा जाता था जो की स्थानीय भाषा में अपभ्रंश हो कर बाद में कड़ेरे कहलाने लगे जो की समय के अनुकूल अपने जीवन जीने के संघर्ष के चलते अपनी परिस्थिति के अनुसार अपनी जीविका के अनुरुप देश के विभिन्न राज्यों में बस गए और जीवन यापन करने लगे तथा ब्रटिश सरकार के अंतिम समय में इस समुदाय के लोगों को उनकी स्थानीय पहिचान के तौर पर कड़ेरे/कंडेरा के नाम से यह जाति दर्ज की गई जो कि मूल रूप से कर्ण वंशी क्षत्रिय है जो कि चंद्रवंशी राजाओं के अंग राजवंश के उत्तराधिकारी होने के कारण चंद्रवंशी कहे जाते है तथा सूर्य के अंश से कर्ण का जन्म होने के कारण सूर्यवंशी भी कहे जाते है इसलिए कर्णवंशियों को सूर्य वंश और चंद्र वंश का उत्कर्ष कहा गया है तथा शब्द "कांडेरा" (कंडेरा) का संस्कृत शब्द "कांडीर" (कांडीरा) भी होता है,जिसका अर्थ है "एक तीरंदाज" अर्थात् धनुष वाण धारण करने वाला एक क्षत्रिय योद्धा किंतु प्राचीन काल से कबीलो (डेरो) में रहने की वजह से एवं यत्र तत्र पलायन के कारण यह समुदाय अपना स्थाई अस्तित्व स्थापित करने से वंचित रहा जिस कारण इतिहास में अपनी क्षत्रिय पहचान से विमुख हो गया इसलिए इस क्षत्रिय समुदाय को क्षत्रिय होते हुए भी क्षत्रियों की 36 शाखाओं में नहीं गिना जाता कर्णवंशियों ने अपनी सरदारी के बलबूते पर ही अपना सनातनी अस्तित्व बनाए रखा
कुछ मत्वपूर्ण तथ्य
धर्म:- सनातन ( हिंदु )
वंश :- चन्द्रवंशी
शाखा :- कर्ण वंशी
वर्तमान पहचान:- कर्णवंशी कबीला कर्णडेरा समुदाय
कुल प्रवर्तक:- सूर्य पुत्र दानवीर कर्ण
मुख्य गोत्र :- कश्यप (कर्ण सूर्य देव के पुत्र थे तथा सूर्य देव के पिता महऋषि कश्यप के थे जो कि ब्रह्म देव के मानस पुत्र मरीचि के पुत्र थे इसीलिए कर्णवंशियों का मुख्यत: गोत्र कर्ण के दादा अर्थात् सूर्य देव के पिता के नाम पर कश्यप है)
प्रवर :- कर्ण , ढिल्लो , लाधिया
कुलदेवी : महाकाली कालिका
कुल नदी :-अश्व नदी (आसन )
कुल गुरु :-परशुराम जी
कुल संरक्षक - संत दादू दयाल जी
वेद:- अथर्व वेद
उपवेद:-धनुर्वेद
पुराण:महाभारत पुराण,मत्स्य पुराण ,वायु पुराण ,अग्नि पुराण
ध्वजा :-लाल रंग का बीच में सूर्य का चिन्ह
यज्ञोपवीत - दुर्गा ( छः लड़ियों वाला )
अश्त्र-शस्त्र :-धनुष-बाण
अराध्य देव:- सूर्य नारायण
सामुदायिक पर्व :- गंगा दशहरा (कर्ण जयंती ), अक्षय तृतीया (गुरु परशुराम जयंती ), छठ पूजा (सूर्य भगवान की वहन माता छठी पूजन)
कर्ण राजपूत भगवान सूर्य को अपना अराध्य देव मानते है और विजई दशमी को धनुष बाण के चित्र कि पूजा करते है
*1.माता कुन्ती*
माता कुंती को जन्म से राजकुमारी पृथा के नाम से जाना जाता था जोकि यदुवंश के प्रसिद्ध राजा शूरसेन जोकि श्रीकृष्ण के पितामह थे, जिनकी पृथा नामक एक पुत्री थी. शूरसेन के फुफेरे भाई कुंतीभोज की कोई सन्तान नहीं थी, इसलिए शूरसेन ने कुंतीभोज को वचन दिया कि उनकी पहली संतान को उन्हें गोद दे देंगे. फलस्वरूप राजकुमारी पृथा शूरसेन की पहली पुत्री थी जिसे कुंतीभोज ने गोद लिया था. जिसके बाद पृथा का कुंतल पुर की राजकुमारी होने के कारण उनका नाम कुंती पड़ गया
*2.कर्ण की रानियां और पुत्र*
कर्ण के दो विवाह हुए थे एक अपने पिता अधिरथ के कहने पर रुशाली नाम कि कन्या से दूसरी मित्र दुर्योधन के कहने पर दूसरी रानी के नाम के पीछे कई एतिहासिक मत है कोई कहता है की रानी कम्बोज के राजा चन्द्र वर्मा कि पुत्री भानुमती कि दासी या छोटी बहन सुप्रिया ( उर्वी ) से (कई इतिहासकार पद्मावती को मानते है जो कि असाम्बरी कि दासी थी ) इन दोनों पत्नियों से उन्हें 9 पुत्रो कि प्राप्ति हुई 1.व्रस्य शेन 2.व्रस्य केतु 3.चित्र शेन 4.सत्य शेन 5.शुशेन 6.सत्रुनजय 7.द्वविपाल 8.प्रसेन 9.वनसेन
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