सूर्य पुत्र कर्ण के व्यक्तित्व की व्याख्या भगवत गीता के अनुसार
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।
अर्थात्
अहं सर्वस्य प्रभवः' -- मानस, नादज, बिन्दुज, उद्भिज्ज, जरायुज, अण्डज, स्वेदज अर्थात् जड-चेतन, स्थावर-जङ्गम यावन्मात्र जितने प्राणी होते हैं, उन सबकी उत्पत्ति के मूल में परम पिता परमेश्वर के रूप में मैं ही हूँ यहां प्रभव का तात्पर्य है कि मैं सबका 'अभिन्न-निमित्तोपादान कारण' हूँ अर्थात् स्वयं मैं ही सृष्टि रूप से प्रकट हुआ हूँ।
अहं सर्वस्य प्रभवः' -- मानस, नादज, बिन्दुज, उद्भिज्ज, जरायुज, अण्डज, स्वेदज अर्थात् जड-चेतन, स्थावर-जङ्गम यावन्मात्र जितने प्राणी होते हैं, उन सबकी उत्पत्ति के मूल में परम पिता परमेश्वर के रूप में मैं ही हूँ यहां प्रभव का तात्पर्य है कि मैं सबका 'अभिन्न-निमित्तोपादान कारण' हूँ अर्थात् स्वयं मैं ही सृष्टि रूप से प्रकट हुआ हूँ।
'मत्तः सर्वं प्रवर्तते' -- संसार में उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, पालन, संरक्षण आदि जितनी भी चेष्टाएँ होती हैं, जितने भी कार्य होते हैं, वे सब मेरेसे ही होते हैं। मूलमें उनको सत्ता-स्फूर्ति आदि जो कुछ मिलता है, वह सब मेरे से ही मिलता है। जैसे बिजली की शक्ति से सब कार्य होते हैं, ऐसे ही संसार में जितनी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका मूल कारण मैं ही हूँ।
'अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते' -- कहने का तात्पर्य है कि साधक की दृष्टि प्राणि मात्र के भाव, आचरण, क्रिया आदिकी तरफ न जाकर उन सबके मूलमें स्थित भगवा नकी तरफ ही जानी चाहिये। कार्य, कारण, भाव, क्रिया, वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति आदि के मूलमें जो तत्त्व है, उसकी तरफ ही भक्तों की दृष्टि रहनी चाहिये।
सातवें अध्याय के सातवें तथा बारहवें श्लोक में और दसवें अध्याय के पाँचवें और इस (आठवें) श्लोकमें 'मत्तः' पद बार-बार कहने का तात्पर्य है कि ये भाव, क्रिया, व्यक्ति आदि सब भगवान से ही पैदा होते हैं, भगवान में ही स्थित रहते हैं और भगवान में ही लीन हो जाते हैं। अतः तत्त्व से सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है -- इस बात को जान लें अथवा मान लें, तो भगवान् के साथ अविकम्प (कभी विचलित न किया जानेवाला) योग अर्थात् सम्बन्ध हो जायगा।
यहाँ 'सर्वस्य 'और 'सर्वम्' -- दो बार 'सर्व' पद देने का तात्पर्य है कि भगवान् के सिवाय इस सृष्टि का न कोई उत्पादक है और न कोई संचालक है। इस सृष्टि के उत्पादक और संचालक केवल भगवान् ही हैं।
'इति मत्वा भावसमन्विताः' -- भगवान से ही सब संसार की उत्पत्ति होती है और सारे संसार को सत्ता-स्फूर्ति भगवान्से ही मिलती है अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारण-रूपसे सब कुछ भगवान् ही हैं -- ऐसा जो दृढ़ता से मान लेते हैं, वे 'भगवान् ही सर्वोपरि हैं; भगवान के समान कोई हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं तथा होना सम्भव भी नहीं' -- ऐसे सर्वोच्च भावसे युक्त हो जाते हैं। इस प्रकार जब उनकी महत्त्व बुद्धि केवल भगवान की हो जाती है तो फिर उनका आकर्षण, श्रद्धा, विश्वास, प्रेम आदि सब भगवान में ही हो जाते हैं। भगवान का ही आश्रय लेने से उनमें समता, निर्विकारता, निःशोकता, निश्चिन्तता, निर्भयता आदि स्वतः-स्वाभाविक ही आ जाते हैं। कारण कि जहाँ देव (परमात्मा) होते हैं, वहाँ दैवी-सम्पत्ति स्वाभाविक ही आ जाती है।
'बुधाः' -- भगवान् के सिवाय अन्य की सत्ता ही न मानना, भगवान को ही सबके मूलमें मानना, भगवान् का ही आश्रय लेकर उनमें ही श्रद्धा-प्रेम करना -- यही उनकी बुद्धिमानी है। इसलिये उनको बुद्धिमान् कहा गया है। इसी बातको आगे पन्द्रहवें अध्यायमें कहा है कि जो मेरेको क्षर-(संसारमात्र-) से अतीत और अक्षर-(जीवात्मा-) से उत्तम जानता है, वह सर्ववित् है और सर्वभाव से मेरा ही भजन करता है
'माम् भजन्ते'-- भगवान के नाम का जप-कीर्तन करना, भगवान् के रूप का चिन्तन-ध्यान करना, भगवान् की कथा सुनना, भगवत्सम्बन्धी ग्रन्थों-(गीता, रामायण, भागवत आदि) का पठन-पाठन करना -- ये सब-के-सब भजन हैं। परन्तु असली भजन तो वह है, जिसमें हृदय भगवान् की तरफ ही खिंच जाता है, केवल भगवान् ही प्यारे लगते हैं, भगवान् की विस्मृति चुभती है, बुरी लगती है। इस प्रकार भगवान में तल्लीन होना ही असली भजन है।
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