कर्णवंश के कुल संरक्षक संत दादूदयाल जी


संत शिरोमणि दादू दयाल महाराज 
मान्यता है कि 15 वी सदी में पुनः मुगलिया हुकूमत से तंग आ कर कर्णवंशी कर्णडेरे समुदाय को क्षत्रिय कर्म जैसे तीरंदाजी, गोला बारूद दागने का कार्य , सैन्य गतिविधियां,युद्ध अभ्यास जैसे कार्य भी छोड़ने पड़े क्योंकि सिर्फ़ तीर भालों और भुजदंडो के वल पर मुगलों की तोपखाने वाली लश्कर का सामना नहीं किया जा सकता था,मुगलों की बढ़ती शक्ति और धर्मांतरण की नीति के चलते स्वयं को सदैव सनातनी बनाएं रखने के उद्देश्य से कर्णबंशी समुदाय स्थानीय पहिचान कर्णडेरे समुदाय ने क्षत्रिय कर्म भी छोड़ दिए क्योंकि धनुष वाण धारण करने वाले कर्णडेरों में रहने वाले योद्धा भीलों के साथ मिलकर जंगलों से निकल कर क्षत्रिय राजाओं का मुगलों के विरुद्ध समर्थन किया करते थे जब यह कर्णवंशी कर्णडेरे समुदाय अपने जीवन यापन संघर्ष से जूझ रहा था तब इस समुदाय को ईश्वर ने भक्ति मार्गी शाखा के संत दादूदयाल की शरण में भेज दिया चूंकि संत दादूदयाल निराकार ब्रह्म के उपासक थे इसलिए संत दादूदयाल का आश्रम और उनके शिष्य मुगलों की दमनकारी मुहिम से बचे हुए थे क्योंकी विदेशी अक्रांता मुख्यत: सनातन धर्म में मूर्ति पूजा के विरोधी थे,संत दादूदयाल ने इस समुदाय का एक शिशु की भांति सरक्षण किया और इस समुदाय को कपास की खेती और रूई कातने के कार्य के व्यवसाय की सलाह दी ताकि उन विषम परिस्थितियों में इस समुदाय का भरण पोषण हो सकें और कर्णवंशी कर्णडेरे समुदाय अपने स्वभिमान के साथ जी सके , संत दादूदयाल जी कृपा से कर्णवंशी कर्णडेरे समुदाय ने इस कार्य को अपना कर्म मान लिया और जीवन यापन करने लगे इस प्रकार कर्णवंशी कर्णडेरे समुदाय उन धर्म विरोधी विषम परिस्थितियों में भी अपनी सनातन हिंदू धर्म संस्कृति को बचाने में सफ़ल रहा इस प्रकार कर्णडेरे ( कंडेरे ) समुदाय के साथ रूई कातने का कार्य जुड़ गया और कड़ेरे / कड़ेरा समुदाय का वंशानुगत कर्म कहलाने लगा 

मान्यता यह भी है कुछ नौजवान कर्णवंशी क्षत्रिय योद्धाओं की टोली प्रतिशोध के चलते अपनी मात्रभूमि और सनातन धर्म की रक्षा हेतु पूर्ण समर्पण के भाव से गुरु नानक जी के शरण में चली गईं जो बाद में सनातन धर्म के सिख पंथ का अनुसरण करने लगी और सिख कहलाने लगी जिनमे ढिल्लो गोत्र के जट्ट प्रमुख रूप से पाए जाते है 



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