सूर्य पुत्र कर्ण के व्यक्तित्व की व्याख्या भगवत गीता के अनुसार

भगवत गीता के १० वे अध्याय के ८ वे श्लोक के अनुसार अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।। अर्थात् अहं सर्वस्य प्रभवः ' -- मानस, नादज, बिन्दुज, उद्भिज्ज, जरायुज, अण्डज, स्वेदज अर्थात् जड-चेतन, स्थावर-जङ्गम यावन्मात्र जितने प्राणी होते हैं, उन सबकी उत्पत्ति के मूल में परम पिता परमेश्वर के रूप में मैं ही हूँ यहां प्रभव का तात्पर्य है कि मैं सबका 'अभिन्न-निमित्तोपादान कारण' हूँ अर्थात् स्वयं मैं ही सृष्टि रूप से प्रकट हुआ हूँ। ' मत्तः सर्वं प्रवर्तते ' -- संसार में उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, पालन, संरक्षण आदि जितनी भी चेष्टाएँ होती हैं, जितने भी कार्य होते हैं, वे सब मेरेसे ही होते हैं। मूलमें उनको सत्ता-स्फूर्ति आदि जो कुछ मिलता है, वह सब मेरे से ही मिलता है। जैसे बिजली की शक्ति से सब कार्य होते हैं, ऐसे ही संसार में जितनी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका मूल कारण मैं ही हूँ। ' अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते' -- कहने का तात्पर्य है कि साधक की दृष्टि प्राणि मात्र के भाव, आचरण, क्रिया आदिकी तरफ न जाकर उन सब...